सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण
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- राजा राम मोहन राय को आधुनिक भारत का पिता कहा जाता है|उन्हें ‘नवप्रभात का तारा’ तथा ‘पहला राष्ट्रीय व्यक्ति’कहा जाता है|‘धर्म सुधार आन्दोलन का प्रवर्तक’कहा जाता है|
- राजा राम मोहन राय ने 1815 ई० में “आत्मीय सभा” की स्थापना की थी|1816 ई० में उन्होंने “वेदांत सोसाइटी”की स्थापना की थी|1828 ई० में इन्होने “ब्रह्मा समाज” की स्थापना की थी|
- दयानन्द सरस्वती के बचपन का नाम मूलशंकर था| उन्होंने 1875 ई० में “आर्य समाज”की स्थापना की थी|
- 1757 ई० के बाद भारत में अंग्रेजों ने सत्ता हासिल किया और 1764 ई०के युद्ध के बाद भारत में अंग्रेजों ने पूरी तरह से राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित कर लिया था|
- भारत में अंग्रेज लगातार अपना साम्राज्य फैलाते जा रहे थे|अंग्रेजी साम्राज्य के साथ-साथ अंग्रेजी संस्कृति भी भारत में फैलती चली गई|विदेश से आई संस्कृति भारत में अब अपना प्रभाव जमाती जा रही थी|वास्तव में भारत में राजनीतिक खतरा तो था ही उससे कहीं ज्यादा भारत में सांस्कृतिक खतरा उत्पन्न होने लगा था|
- एक तरफ तो भारत में 1857 की क्रांति घटित हुई तो दूसरी ओर इसी क्रांति के आस-पास के काल में ही भारत में सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण का काम भी चल रहा था|
- 1857 की क्रांति सामाजिक-धार्मिक पुनर्जागरण से पूरी तरह से अछूती रही| वास्तव में सामाजिक-धार्मिक पुनर्जागरण के नेता उदहारण के लिए-राजाराममोहन राय या फिर दयानन्द सरस्वती ने 1857 की क्रांति में न ही रूचि लिया और न ही इन्होने किसी प्रकार की दिलचस्पी दिखाई|इसीलिए 1857 की क्रांति का नेतृत्व कुछ राजाओं-महाराजाओं और सामंती तत्वों ने अपने हाँथ में रख लिया क्योंकि 1857 की क्रांति किसी प्रगतिशील नेतृत्व को जन्म नहींदे पाई थी|
- इस प्रकार, भारत में जो पाश्चात्य संस्कृति भारत में अपने पैर जमाती जा रही थी, उस संस्कृति से भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए एक आन्दोलन का जन्म हुआ, जिसे हम सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण कहते है|
- 19वीं शताब्दी का समाज और धर्म अन्धविश्वासों में जकड़ा हुआ था| देवी-देवताओं की संख्या तथा उनके प्रति लोगों के अन्धविश्वास बहुत अधिक बढ़ चुकी थी|भारतीय समाज में कोई स्पष्ट दिशा नहीं थी| भारतीय समाज की कमियों को दूर करने का प्रयास किया गया|भारतीय समाज में उच्च एवं निम्न जातियों के मध्य खाई बहुत ज्यादे बढ़ चुकी थी| यहाँ तक की यह छुआ-छूत का रूप धारण कर चुकी थी, जो मध्यम वर्ग के पढ़े लिखे लोग तथा उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्गके लोगों से दुरी बनाये रखते थे|यहाँ तक की इन वर्गों में निम्न वर्ग के लोगों के प्रति घृणा की भावना भी पनप चुकी थी|परिणामस्वरुप निचले वर्ग के लोग आर्थिक लाभ एवं सामाजिक मान-सम्मान प्राप्त करने के लिए इसाई धर्म स्वीकार कर रहा था|
- 1813ई० में इसाई मिशनरियों को भारत में धर्मका प्रचार करने की छूट मिली|इसाई मिशनरी भारत में धर्म का प्रचार-प्रसार करने के साथ ही साथ अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार-प्रसार भी करने लगे|अंग्रेजी शिक्षा के माध्यमसे पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान भी भारत में आने लगा|
- पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञानआधुनिकता पर आधारित था जैसे- महिलाओंके प्रति समानता की दृष्टि, जातिगत आधार पर ऊँचे और निचले वर्ग का भेद नहीं था|अंग्रेजी शिक्षा के माध्यमसे पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान जब भारत आया तब भारतीय आधुनिक ज्ञान से परिचित हुए इसके चलते भारतीयोंके सोच और दृष्टिकोणमें महत्वपूर्ण परिवर्तन आया|लेकिन जब इसाई मिशनरियों ने निचले वर्ग के लोगों के लाचारी का लाभ उठाकर उन्हें इसाई बनाना शुरू कर दिया तो इसके खिलाफ भारतीयों में तीखी प्रतिक्रिया हुई|
- भारत पर अंग्रेजों ने बहुत आसानी से जीत हासिल की थी|वास्तव में अंग्रेजों को इतनी आसान जीत दुनियां में कहीं नहीं हासिल हुई थी| अंग्रेज भारत ना केवल बहुत आसानी से सत्ता प्राप्त की बल्कि एक के बाद एकअपने साम्राज्य का विस्तार करते चले गये थे|
- भारत पर अंग्रेजों की विजय ने भारतीय समाज की कमजोरी और उसके पिछड़ेपन को एकदम स्पष्ट कर दिया| जो प्रबुद्धभारतीयथे, वे सोचने पर मजबूर हो गये कि आखिर वो कौन से कारण हैं जिन्होने भारत को अंग्रेजों का उपनिवेश बना दिया|भारतीय प्रबुद्ध वर्ग हमारे राष्ट्रीय पतन के कारणों पर गौर करने लगे और उन्होंने पाया किवास्तव में हमारे समाज और धर्म की कमजोरियों का परिणाम है,जिसके चलतेहमारा देश गुलाम बना|
- प्रारम्भमें जिन लोगों ने सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण का नेतृत्व संभाला उनमे ज्यादातरऐसे लोग थे, जो पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के विरोधी नहीं थे|इन लोगों का मानना था कि निःसंदेह भारतीय संस्कृति, भारतीय धर्मं,प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान महान है किन्तु उनका यह भी मानना था कि भारतीय समाज में व्याप्त कमजोरियोंको भारतीय ज्ञान-विज्ञान के माध्यम से नहीं बल्कि पाश्चात्य ज्ञान और विज्ञान के माध्यम से ही दूर किया जा सकता है|
- भारतीय समाज और संस्कृति कहीं न कहीं से भ्रष्ट हो चुकी थी|भारतीय समाज और संस्कृति के इस अवस्था में पहुँचने के दीर्घकालिक कारण थे|एकतो मूल रूप से वैदिक समाज रह नहीं गया था, उसपर भी हमेशा बाहरी आक्रमण का दंश झेलता रहा इसके कारण हिन्दू समाज में उथल-पुथल मची ही हुई थी, जिसके चलते हिन्दू समाज अपनी मूल विचारधारा अपने मूल चिंतन अपने मूल पहचान को भूल चूका था और इसलिए पथभ्रष्ट हो चुका था|राजा राम मोहन राय का मानना था कि पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के माध्यम से ही भारतीय समाज को अपने रास्ते पर लाया जा सकता है|
- भारतीय समाज में व्याप्त कमजोरियों को दूर करने केलिए 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध से जो प्रयत्न शुरू हुए उसकी दो धाराएँ थीं-
- पहली धारा पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान को स्वीकार करती थी और मानती थी कि भारतीय समाज की कमजोरियों को दूर करने के लिए पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान अत्यन्त आवश्यक है|इनका मानना था कि भारतीय ज्ञान-विज्ञान, भारतीय दर्शन कितना भी महान क्यूँ न हो किन्तु भारतीय समाज में व्याप्त कमजोरियों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के सहारे ही दूर किया जा सकता है|इस धारा का नेतृत्वराजा राम मोहन राय कर रहे थे|राजा राम मोहन रायभारतमें अंग्रेजी शिक्षा के प्रबल समर्थकों में से एक थे|
- दूसरी धारा प्रतिक्रियावादी थी| इस धारा का उदय वास्तव में पाश्चात्य संस्कृति के खिलाफ हुआ था|दूसरी धारा अंग्रेजी शिक्षा और पाश्चात्य ज्ञान को भारतीय संस्कृति के लिए खतरे के रूप में लिया और प्राचीन भारतीय संस्कृति के गौरवमयी ज्ञान और उसके पुनरुत्थान परबल देने लगे|इस धारा का नेतृत्व दयानंद सरस्वती जैसे भारतीय ने किया था| इन्हीं का नारा था कि “वेदों की ओर लौटो”|
- भारत में अंग्रेजी शिक्षा के द्वारा पाश्चात्यीकरण का प्रभाव बढ़ता जा रहा था| 1813ई० में जब इसाई मिशनरियों को भारत में कार्य करनेकी छूट मिली तब भारत मेंपाश्चात्यीकरण अत्यधिक तेजी से बढ़ने लगा|
- भारत में इसाई मिशनरियों ने तेजी से अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा दिया| अंग्रेजी शिक्षा के माध्यमसे पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञानभी भारतीयोंतक पहुँचने लगा, इससे समाज में कुछ सकारात्मक लाभ भी मिला| स्वामी दयानन्द सरस्वती का मानना था कि हम अपने प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के माध्यम से हीअपने गौरव को हासिल कर सकते हैं|